Rig Veda - Book 01 - Hymn 103
Text: Rig Veda Book 1 Hymn 103 तत त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवयः पुरेदम | कषमेदमन्यद दिव्यन्यदस्य समी पर्च्यते समनेव केतुः || स धारयत पर्थिवीं पप्रथच्च वज्रेण हत्वा निरपः ससर्ज | अहन्नहिमभिनद रौहिणं वयहन वयंसं मघवा शचीभिः || स जातूभर्मा शरद्दधान ओजः पुरो विभिन्दन्नचरद विदासीः | विद्वान वज्रिन दस्यवे हेतिमस्यार्यं सहो वर्धया दयुम्नमिन्द्र || तदूचुषे मानुषेमा युगानि कीर्तेन्यं मघवा नाम बिभ्रत | उपप्रयन दस्युहत्याय वज्री यद ध सूनुः शरवसे नाम दधे || तदस्येदं पश्यता भूरि पुष्टं शरदिन्द्रस्य धत्तन वीर्याय | स गा अविन्दत सो अविन्ददश्वान स ओषधीः सोपः स वनानि || भुरिकर्मणे वर्षभाय वर्ष्णे सत्यशुष्माय सुनवाम सोमम | य आद्र्त्या परिपन्थीव शूरो....